जीवन परिचय :::
1.पूरा नाम -- पंडित चन्द्रशेखर तिवारी
2.दूसरा नाम -- आजाद
3.जन्म -- 23 जुलाई 1906
4.जन्म स्थान -- भाबरा [मध्यप्रदेश]
5.मृत्यु -- 27 फरवरी 1931 ,अल्फ्रेड़ पार्क
इलाहबाद
चन्द्रशेखर आजाद के पिता का नाम पंडित सीताराम तिवारी था.वे उत्तरप्रदेश के उन्नाव जिले के बदर गाँव के रहने वाले थे.अपने गाँव मे भीषण अकाल पड़ने के कारण वे अपने रिश्तेदार के यहाँ भाबरा आ गये और यही बस गये.आरम्भिक शिक्षा के पश्चात वे बनारस चले गये जहाँ संस्कृत विधापीठ मे भर्ती होकर संस्कृत का अध्ययन करने लग गये.
आजाद बचपन से ही निर्भीक प्रवृत्ति के थे.एक बार दीपावली के समय उनका साथी रंग - बिरंगी माचिस की तीलीयाँ जलाने मे काफी डर रहा था.आजाद ने यह देखा तो उससे माचिस लेकर कहा कि तुम कितने डरपोक हो और आजाद ने माचिस से सभी तिलियाँ निकालकर उन्हें माचिस पर रगड़ दिया चूंकि तिलीयाँ आडी तिरछी रखी हुई थी और कुछ तिलीयों का मुँह आजाद की तरफ था,अत: उन तिलियों से आजाद का हाथ जल गया परन्तु आजाद ने तब तक तिलीयों को नही छोडा जब तक कि सारी तिलीयाँ जल नही गई
असहयोग आन्दोलन :::
आजाद में राष्ट्रभक्ति कूट कूटकर भरी थी.यही कारण हैं,कि बहुत कम उम्र मे वो मातृभूमि को आजाद करने का व्रत ले चुके थे.
1921 में जब असहयोग आन्दोलन महात्मा गाँधी के नेतृत्व मे चला तो आजाद ने उसमे बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया.एक आजाद को धरना देते वक्त पुलिस ने गिरफ़्तार कर मजिस्ट्रेट खरेघाट के समक्ष पेश किया,खरेघाट अपने कठोर फैसलों से बहुत चर्चित थे किन्तु आजाद को इससे कोई फर्क नही पड़ा और जब खरेघाट ने आजाद से प्रश्न पूछना शुरू किया तो उन्होनें निम्न उत्तर दिये
खरेघाट -- तुम्हारा नाम ?
चन्द्रशेखर -- मेरा नाम आजाद हैं.
खरेघाट -- पिता का नाम ?
चन्द्रशेखर -- स्वाधीन
खरेघाट -- घर कहाँ हैं ?
चन्द्रशेखर -- जेलखाना
खरेघाट इन उत्तरों को सुनकर तिलमिला उठे और उसने आजाद को 15 बेंत मारनें की सजा सुना दी निर्भीक आजाद ने 15 बेंतो के भरपूर वार अपनी पीठ पर सहे किन्तु उनके मुहँ से सिर्फ भारत माता की जय और महात्मा गाँधी की जय ही निकला
इस घट़ना के समय आजाद की उम्र मात्र 14 वर्ष थी,किन्तु उनके कामों ने उन्हें देशव्यापी प्रसिद्धि दिला दी,फलस्वरूप आजाद का सभी जगह नागरिक अभिनंदन किया जानें लगा.
काकोरी काण्ड़ :::
बनारस में रहकर आजाद क्रांतिकारी विचारधारा की ओर अग्रसर हो गये मन्मथनाथ गुप्ता और प्रणवेश चटर्जी के साथ मिलकर उन्होनें हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन बनाया.इस दल के माध्यम से आजाद मातृभूमि को शीघृ स्वतंत्र करना चाहते थे.
इसी क्रम में इनकी मुलाकात रामप्रसाद बिस्मिल से हुई चूंकि क्रान्तिकारी गतिविविधियों के लिये धन की आवश्यकता थी,अत: इन्होनें ब्रिटिश खजाना लूटने की योजना बनाई.
९ अगस्त १९२५ को इन्होनें लखनऊ के पास काकोरी नामक स्थल पर रेल मे जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया इस घट़ना ने ब्रिटिश साम्राज्य को हिलाकर रख दिया .और शासन पूरी मुस्तेदी के साथ क्रान्तिकारीयों के पिछे पड़ गया धिरे - धिरे एक - एककर क्रान्तिकारी पकडे गये परन्तु आजाद पुलिस के हाथ नही लगें,वे भेष बदलकर झांसी के पास ओरछा में रहनें लगे,इस दोरान उन्होनें नये सिरे से संगठन खड़ा किया जिसका नाम " हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक आर्मी एण्ड़ एसोसिएशन " रखा.इस दल को मास्टर रूद्रनारायण सिंह का अच्छा सहयोग मिला.
झांसी में ही आजाद को सदाशिव राव मलकापुरकर,भगवान दास माहौर और विश्वनाथ वैश्यपायन नामक अच्छे साथी मिलें.
कुछ दिनों में दल का कार्यक्षेत्र पंजाब तक फैल गया यहाँ उन्हें भगतसिंह और राजगुरू महान क्रान्तिकारियों का भरपूर सहयोग मिला.
लाला लाजपतराय की मृत्यु का बदला
जब साइमन कमीशन भारत आया तो उसके विरोध में अनेक नेताओं ने देशभर में शांतिपूर्वक प्रदर्शन किये ,जब लाहोर में साइमन कमीशन का विरोध लाला लाजपत राय ने किया तो पुलिस ने उन पर बेरहमी से लाठीयाँ बरसाई कि कुछ दिनों बाद उनकी मृत्यु हो गई यह बात आजाद को चुभ गई और उन्होंनें भगतसिंह ,और राजगुरू के साथ मिलकर लाठियाँ चलवानें वाले पुलिस अधिकारी साँण्डर्स की हत्या कर लाजपत राय की मृत्यु का बदला लेनें का निश्चय किया.
१७ दिसम्बर १९२८ को चन्द्रशेखर आजाद ,भगतसिंह और राजगुरू ने लाहोर मे पुलिस अधीक्षक के कार्यालय में साण्डर्स को घेर लिया ज्यो ही साण्डर्स अपने अंगरक्षक के साथ मोटर साईकिल पर बैठकर जानें लगा राजगुरू ने गोली चला दी जो उसके मस्तक पर जा लगी भगतसिंह ने भी आगे बढ़कर चार - पाँच गोलीयाँ साण्डर्स पर चलाकर उसकी जीवनलीला ही समाप्त कर दी.जब उसका अंगरक्षक आगे बढ़ा तो आजाद ने उसको भी गोली से समाप्त कर दिया.सम्पूर्ण भारत में क्रान्तिकारीयों की इस कार्यवाही को सराहा गया.
१७ दिसम्बर १९२८ को चन्द्रशेखर आजाद ,भगतसिंह और राजगुरू ने लाहोर मे पुलिस अधीक्षक के कार्यालय में साण्डर्स को घेर लिया ज्यो ही साण्डर्स अपने अंगरक्षक के साथ मोटर साईकिल पर बैठकर जानें लगा राजगुरू ने गोली चला दी जो उसके मस्तक पर जा लगी भगतसिंह ने भी आगे बढ़कर चार - पाँच गोलीयाँ साण्डर्स पर चलाकर उसकी जीवनलीला ही समाप्त कर दी.जब उसका अंगरक्षक आगे बढ़ा तो आजाद ने उसको भी गोली से समाप्त कर दिया.सम्पूर्ण भारत में क्रान्तिकारीयों की इस कार्यवाही को सराहा गया.
अल्फ्रेड पार्क में आजाद की शहादत
२७ दिसम्बर १९३१ को आजाद अपने साथी सुखदेव राज के साथ अल्फ्रेड पार्क में बेठकर विचार - विमर्श कर रहे थे,तभी किसी भेदिये ने आजाद के पार्क में बैठे होनें की सूचना पुलिस अधीक्षक नाटबाबर को दे दी ,पुलिस ने आजाद को पार्क में घेर लिया ,आजाद ने सुखदेव को भगा दिया,और स्वंय मोर्चे पर डट गये लम्बें संघर्ष के बाद आजाद को चार गोलीयाँ शरीर में लगी,जब आजाद के पास मात्र एक गोली बची थी तब उन्होनें जिन्दा पकड़े जानें के भय से अपनी बची हुई गोली को अपनी कनपटी पर रखकर चला दिया,इस प्रकार मात्रभूमि का यह वीर सपूत बिना अंग्रेजों के हाथ लगे "आजाद" हो गया.
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